बलदेव राम — विद्रोह से बदलाव की ओर
(1950–2017)
लेखन: हातेमलो समुह
Translated from English to Hindi by Gautam
चमार, नेपाल के सप्तरी जिले का एक दलित समुदाय है जो हमेशा से ही छुआछूत, भूमिहीनता और सामाजिक गैरबराबरी का सामना करते आया है। मुख्य रूप से मृत जानवरों की चमड़ी निकालने के अपने काम के कारण, चमार समुदाय द्वारा अपने जीवन और गरिमा के अधिकारों की कल्पना और आकांक्षा कर पाने की हर संभावना को झा, मिश्रा, तिवारी, ठाकुर और राजपूत जैसे ‘ऊंची’-जाति के समुदायों ने पूरी तरह से ख़त्म कर दिया। जाति-व्यवस्था ने इस दमन और उत्पीड़न को सामान्य बना दिया और चमार समुदाय को इन अमानवीय हालातों से जूझने पर मजबूर कर दिया। यह उत्पीड़न इस हद तक सामान्य बना दिया गया था कि चमार समुदाय के सदस्यों को दिए गए कर्ज़ों पर अन्य लोगों के मुकाबले कहीं अधिक दर पर ब्याज लिया जाता था, जिसने उनकी आर्थिक स्थिति को बहुत कमज़ोर बना दिया। इस दमन से ‘ऊंची’-जाति के समुदायों को तो बहुत फायदा हुआ लेकिन मृत जानवरों की चमड़ी निकलने के काम करने के कारण चमार समुदाय को पीड़ा, दुर्व्यवहार, और हिंसा का सामना करना पड़ा। चमार समुदाय के साथ न सिर्फ अमानवीय बर्ताव किया गया बल्कि उन्हें अपराधी करार दिया गया और किसी अन्य पेशे के लिए उन्हें अयोग्य समझा गया।
मधेश क्षेत्र में स्थित सप्तरी जिले के मधुपट्टी के बलदेव राम ने 1950 में एक चमार परिवार में जन्म लिया था। उन्होंने बचपन से ही विद्रोह का रास्ता चुना, और मौजूदा सामाजिक मूल्यों और मानदंडों का विरोध करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने आस पास जिस सामाजिक भेदभाव को देखा और महसूस किया, उसके खिलाफ बलदेव ने आवाज़ उठाई। अपने परिवार की कमज़ोर आर्थिक स्थिति के बावजूद उन्होंने एक सरकारी पाठशाला से 7वीं कक्षा तक की पढाई पूरी की। अपनी ही पाठशाला में मरे हुए बछड़े को उठाने का काम दिए जाने की घटना से लगी गहरी चोट के कारण उन्होंने पढाई छोड़ने का फैसला किया।
“मुझे ही मरे हुए बछड़े को उठाने को क्यों कहा गया? न तो वह बछड़ा मेरा था न ही मैंने उसे मारा था?”
इन सभी चुभते सवालों के चलते उन्होंने जाति-व्यवस्था और उसके अनेक रूपों के बारे में और जानने का फैसला किया। माधव बिक्रम जैसे ‘ऊंची’-जाति के लोगों की 2 बीघा (हेक्टेयर) ज़मीन पर खेत मज़दूरी करने पर बलदेव और उनके परिवार को हमेशा कम मज़दूरी दी जाती थी। उन्हें दिया जाने वाला अनाज भी बहुत कम हुआ करता था। मृत जानवरों के काम से भी बहुत कम ही कमाई हो पाती थी।
जब वे 13 साल के थे, तब उनकी मां चल बसी। हालांकि उनके पिता, प्रीतम दास ने दूसरी शादी की थी, लेकिन बलदेव को ही परिवार की आर्थिक ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी और खेतों में और ज़्यादा काम करना पड़ा। इसके साथ-साथ उन्होंने अन्य दमनित जाति समुदायों से आने वाले अपने दोस्तों के साथ मिलकर जाति-व्यवस्था की आलोचना करने का कार्य भी जारी रखा। कुछ सालों के बाद बलदेव राम ने सुगधी देवी से शादी की और इस शादी से उनके चार बच्चे हुए।
ऐसा मालूम होता है कि नेपाल में प्रजातंत्र स्थापित करने के लिए वर्ष 1945 में शुरू हुए संघर्ष के कारण पैदा हुए राजनीतिक माहौल ने बलदेव की सोच पर गहरा असर डाला। पढ़ा लिखा होने की वजह से बलदेव के पिता प्रीतम दास को अपनी ग्राम पंचायत के रजिस्ट्रार (पंजीयक) के पद के लिए चुना गया। सामाजिक बदलाव और सामाजिक प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले प्रीतम दास ने एक अनौपचारिक दलित संगठन की शुरुआत की। इस संगठन के माध्यम से बलदेव के पिता ने छुआछूत और सामाजिक भेदभाव के उन्मूलन की ज़रुरत पर जोर देना शुरू किया। अपने परिवार के नज़दीक होने के कारण, अपने पिता के सामजिक बदलाव से जुड़े विचारों से बलदेव भी प्रभावित हुए। बलदेव को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उससे उनके पुत्र, गणेश राम भी वाकिफ थे। गणेश राम कहते हैं, “मेरे पिता ने हमेशा सामजिक मुद्दों को उठाया और उनपर सवाल खड़े किये। उसके बाद उन्होंने मृत पशुओं की चमड़ी निकलने के अमानवीय काम के विरुद्ध शुरू हुए अभियान के आयोजन में, और ज़्यादा सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया।”
अपने समुदाय की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए बलदेव राम ने गैर-बराबरी पैदा करने वाले इन हालातों को ख़त्म करने का निश्चय किया। 1999 में अपने समुदाय के समर्थन के साथ उन्होंने सिनो पर्था (मृत जानवर के शरीर उठाने की प्रथा) बहिष्कार आंदोलन का नेतृत्व किया। वैचारिक स्तर पर इस आंदोलन ने समानता और गरिमा पर ज़ोर दिया और इस बात को दोहराया कि ‘तुम्हारी तरह हम भी इंसान ही हैं, हम भी गरिमा के हकदार हैं’। इस प्रक्रिया के तहत उन्होंने शिक्षा, रोज़गार और सार्वजनिक जीवन में सत्ता परिवर्तन की ज़रुरत के बारे में लोगों को जागरूक बनाने के ज़रिये समाज में गहरी जड़ें जमा बैठे ऐतिहासिक शोषण, अन्याय और दमन को चुनौती दी। अपनी मातृभाषा, मैथिली का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने छुआछूत और जल संसाधनों को लेकर होने वाले सामाजिक टकरावों के बारे में सार्वजनिक बहस की शुरुआत की। सिनो पर्था बहिष्कार आंदोलन समिति और अन्य संगठनों का गठन करते समय उन्होंने बंधुआ मज़दूरी, भूमिहीनता और भूमि अधिकार के मुद्दों को उठाया और इसके बाद, दलित जनचेतना संगम की स्थापना की घोषणा की। हरवाह (हल चलाने वाले), चरवा (जानवर चराने वाले) और हालिया (हल चलाने वाले) के अधिकारों का मुद्दा उठाते हुए उन्होंने इनकी मज़दूरी बढ़ाये जाने की मांग रखी। इसके ज़रिये उन्हें भूमिहीन दलितों की स्थिति और उनकी मुक्ति के लिए ज़रूरी कदमों के बारे में गहरी समझ विकसित करने का अवसर मिला। ‘ऊंची’-जाति के समुदायों ने आंदोलन को तोड़ने की हर संभव कोशिश की। सबसे पहले, उन्होंने चमार समुदाय को न सिर्फ स्थानीय दुकानों और धान की चक्कियों के इस्तेमाल से वंचित किया, बल्कि रोज़गार और जल संसाधनों के इस्तेमाल के अधिकार भी उनसे छीन लिए गए। आंदोलन को अर्थहीन करार देते हुए और आंदोलन को असफल बनाने की कोशिश में, उन्होंने आंदोलन को बांटने और आंदोलनकारियों में असमंजस और डर पैदा करने की कोशिश की। राज्य पुलिस ने भी कई आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया। आंदोलन के दौरान बलदेव राम के नज़दीकी सहयोगी रहे सोना लाल चौधरी आंदोलन के सदस्यों को ‘ऊँची’-जाति के समुदायों से मिली धमकी को आज भी याद करते हैं। सोना लाल चौधरी ‘ऊँची’-जाति के समुदायों के दमनकारी व्यवहार को संक्षिप्त में बयां करते हुए कहते हैं, “उन्होंने हमारी आवाज़ों को दबाने की पूरी कोशिश की”।
इन सभी अड़चनों के बावजूद, दलित समुदायों ने अपना आंदोलन जारी रखा। बलदेव के नेतृत्व में समुदाय ने कई स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सभाएं, रैलियां और धरने आयोजित करते हुए शोषित समुदायों को एकजुट करने का काम किया।
1990 के दशक में बलदेव के जिले सप्तरी में प्रजातंत्र और भूमि अधिकारों के लिए 400 दलितों के धरने से शुरू हुआ यह सत्याग्रह, आगे जाकर 20 हज़ार दलितों की रैली में तब्दील हो गया, जिसने लोगों में उम्मींदों और सपनों के बीज बोये। बलदेव राम ने अपने गुस्से और हताशा को भेदभाव और शोषण के खिलाफ एक सामूहिक मुहिम का रूप दिया।
कुछ समय बाद, इस आंदोलन को नागरिक समाज और अन्य पहाड़ी दलित समुदायों ने भी अपना समर्थन दिया। मुख्यधारा के मीडिया ने आंदोलन के बारे में लिखते हुए बलदेव के संघर्ष को व्यापक दलित आंदोलन से जोड़ा। इस बीच, आंदोलन और सरकार तथा स्थानीय नेताओं के बीच में एक समझौता हुआ जिसके तहत मृत जानवरों के शवों को उठाने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया। इस समझौते में सामाजिक बहिष्कार को अमानवीय करार दिया गया। इस प्रकार, इस आंदोलन ने चमार समुदाय को सम्मान और गरिमा दिलाई। इस उपलब्धि ने बलदेव राम को, भूमिहीनों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए राष्ट्रीय भूमि अधिकार मंच और हरुवा चरुवा अधिकार मंच की स्थापना और अध्यक्षता करने की भी प्रेरणा दी। इस संगठन के कई लाख सदस्य हैं। वामपंथी आंदोलन का समर्थन करते हुए, बलदेव ने मेहनतकश वर्ग और दलितों के भूमि अधिकारों पर ज़ोर दिया, और शहरी इलाकों में प्रभावशाली समुदायों के वर्चस्व को चुनौती दी। आगे चलकर इस आंदोलन ने दलित आयोग के गठन में भी भूमिका निभाई, जो नेपाल में इस तरह की पहली पहल थी। इस तरह से, मृत जानवरों को उठाने की प्रथा के खिलाफ बलराम के नेतृत्व में खड़े हुए इस दलित आंदोलन ने नेपाल के व्यापक दलित आंदोलन को भी प्रभावित किया, और न सिर्फ विशेष मुद्दों के महत्व को रेखांकित किया बल्कि यह भी दर्शाया कि किस तरह स्थानीय या क्षेत्रिय मुद्दे सभी दमानित समुदायों को साथ लाने और व्यापक आंदोलन को और मज़बूत बनाने का काम कर सकते हैं।
तमाम मुश्किलों के बावजूद आंदोलन खड़ा करने और अपने जुझारूपन के लिए, अंबेडकर फॉउण्डेशन ने बलदेव राम को 2008 में दिल्ली में भूमिहीन और दलित आंदोलन की ओर उनके योगदान के लिए अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा। उन्हें एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया है। जब 2017 में बलदेव राम की अपने गाँव मधुपट्टी, सुरुगुणा नगर पालिका, सप्तरी में दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हुई तब उनकी उम्र 67 वर्ष थी। उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटे और दो बेटियां हैं। लोग उन्हें आज भी स्नेह से याद करते हैं। भूमि अधिकार कार्यकर्ता जिनमें दलित भी शामिल हैं, आज भी बलदेव राम को नेपाल के भूमिहीनों और दलितों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और नेतृत्व के लिए याद करते हैं।
हातेमलो समुह फिलहाल नेपाल के दलित समुदायों और मूलनिवासी राष्ट्रीयताओं से आने वाले व्यक्तियों का एक अंतरराष्ट्रीय समूह है। हमारा सामूहिक उद्देश्य, सामाजिक न्याय और समता के लिए दलितों और आदिवासियों सहित सभी बहुजनों को एकजुट करना है। जाति उन्मूलन की दिशा में काम करने के साथ-साथ, खास तौर पर हमारे उद्देश्य हैं: दलितों को समर्थन देने वाली संस्थानों के साथ मिलकर आपसी-सहायता के ज़रिये जाति-आधारित हिंसा के शिकार होने वाले लोगों को व्यावहारिक मदद पहुँचाना; दलित कार्यकर्ताओं के साथ सार्वजनिक चर्चा के माध्यम से दलितों के मुद्दों के बारे में विमर्श खड़ा करना, और विशेष रूप से मधेशी दलित समुदायों से आने वाले आयोजकों, कलाकारों, महिलओं और क्वीयर व्यक्तियों को समर्थन देना। हम कला और संगीत के ज़रिये भी दलित मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने की कोशिश करते हैं।
सन्दर्भ
https://kathmandupost.com/miscellaneo
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