मूकनायक की क्रांतिकारी पत्रकारिता

Dalit History Month
4 min readNov 24, 2021

लेखन: लीडिया जयकुमार

अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद: गौतम

This piece was first published by Dalit History Month as The Revolutionary Journalism of Mooknayak and translated from English to Hindi by Gautam.

मुख्य पृष्ठ, मूकनायक, ३१ जनवरी १९२०, फोटो विकिमीडिया के सौजन्य से

करीब 101 साल पहले, 31 जनवरी 1920 को पहली बार प्रकाशित हुए अख़बार मूकनायक की नींव डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने डाली थी। मूकनायक, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘बेआवाज़ लोगों का नायक’, हर पंद्रह दिनों में मराठी भाषा में मज़दूरों की बड़ी आबादी वाले बम्बई के परेल इलाके से प्रकाशित किया जाता था।

भूतपूर्व कोल्हापुर राज्य के महाराजा छत्रपति शाहूजी ने 2,500 रुपये की शुरुआती रकम देकर इस अखबार की स्थापना में आर्थिक रूप से मदद की।

कई मायनों में, मूकनायक की पत्रकारिता उस समय के अखबारों की ब्राह्मणवादी जातिगत विचारधारा के बिलकुल विपरीत खड़ी थी। 1920 का दशक जाति-विरोधी आंदोलनों के लिए बदलाव का समय था, क्योंकि इसके दौरान इन सभी आंदोलनों को देश भर में अपने लिए एक बड़ा जनाधार जुटाने में सफलता हासिल होने लगी थी। दलित मुक्ति आंदोलन देश के अलग अलग कोनों में फ़ैल रहा था। इनमें से, पंजाब का आद-धर्म आंदोलन, महाराष्ट्र में महारों का विद्रोह, बंगाल में नमोशूद्र आंदोलन, और तमिलनाडु में आदि-द्रविड़ आंदोलन उल्लेखनीय हैं। इन आंदोलनों के जवाब में कई जगह ‘ऊंची’-जातियों द्वारा दलितों के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल किया गया।

इसके बावजूद उस समय के अख़बारों ने जाति या छुआछूत के खिलाफ लिखने से साफ़ इनकार कर दिया। दलितों की आवाज़ों के लिए उस वक़्त के मीडिया में कोई स्थान नहीं था। डॉ. अंबेडकर ने तत्कालीन पत्रकारिता में मौजूद इस जाति-आधारित पक्षपात को साफ़ तौर पर देखा था। वे अक्सर अपने भाषणों में ‘अखबारों के इस वर्षों पुराने पक्षपात’ की बात करते थे। मूकनायक के पहले अंक के संपादकीय में उन्होंने लिखा था

“बॉम्बे प्रेसीडेंसी में प्रकाशित होने वाले अखबारों पर अगर हम सरसरी निगाह भी डाले, तो हम पाएंगे कि इनमें से कई अखबार सिर्फ कुछ (‘ऊंची’) जातियों के हितों की रक्षा में ही रुचि रखते हैं। और बाकी जातियों के हितों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। सिर्फ यही नहीं। कई बार, ये अन्य जातियों के हितों को नुकसान पहुंचाने का भी काम करते हैं”। (मूकनायक, पहला अंक, पृष्ठ 34)

इसके साथ-साथ, डॉ. अंबेडकर वास्तविक सामाजिक बदलाव लाने के लिए आम जनता को शिक्षित और संगठित करने में अखबारों के महत्व को भी भली-भांति समझते थे। मूकनायक की स्थापना के पीछे मुख्यधारा के मीडिया का यही पक्षपात था। मूकनायक के साथ उन्होंने मीडिया के ऐसे वैकल्पिक मॉडल की न सिर्फ कल्पना की बल्कि उसे वास्तविकता में भी बदला, जिसके तहत अखबार को उस समय के उत्पीड़ित वर्गों के लिए और उनके द्वारा प्रकाशित किया गया।

मूकनायक के प्रकाशन से उस वक़्त के मुख्यधारा का मीडिया बहुत ज़्यादा खुश नहीं था। बल्कि, बाल गंगाधर तिलक के अखबार ‘केसरी’ ने मूकनायक के पहले अंक के प्रकाशित होने के विज्ञापन को छापने से साफ़ इनकार कर दिया था। उस वक़्त के तथाकथित मुख्यधारा के अख़बारों का ध्यान सिर्फ ब्रिटिश-विरोशी राष्ट्रवादी आंदोलन पर ही था। दलितों और अन्य उत्पीड़ित वर्गों द्वारा किये जाने वाले प्रतिरोध को देश को बांटने के उद्देश्य से सामजिक ताने-बाने पर किये गए हमले के रूप में पेश किया जाता था।

इसके बावजूद, मूकनायक अपने पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय था। मूकनायक के सभी प्रकाशित अंक बीसवीं सदी के शुरूआती वर्षों को उत्पीड़ित समुदायों के नज़रिये से समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण दतावेज़ हैं। मूकनायक ने पश्चिमी भारत से जुड़े ख़ास मुद्दों के बारे रिपोर्ट करने के अलावा जाति-व्यवस्था के विरोध में हुए भारत-व्यापी आंदोलनों का भी विश्लेषण किया। इसमें मारगांव और नागपुर में 1920 में हुई उत्पीड़ित वर्गों (डिप्रेस्ड क्लासेज) के सम्मेलनों का भी दस्तावेज़ीकरण किया गया। मूकनायक ने महिलाओं के अधिकार, धर्म और राष्ट्रवादी राजनीती से जुड़े कई विवादस्पद मुद्दों पर साहसी और सटीक नजरिया अपनाया। उदाहरण के तौर पर, डॉ. अंबेडकर ने गांधी के ‘स्वराज’ के विचार की आलोचना मूकनायक के ही पन्नों के माध्यम से ही प्रस्तुत की थी।

अगर स्वराज का अर्थ स्वशासन और ब्रिटिश शासन से मुक्ति था, तो डॉ. अंबेडकर ने पुछा कि इसका उन लोगों के लिए क्या मतलब होगा जो ब्राह्मणवादी सत्ता से मुक्ति चाहते हैं। मूकनायक ने आज़ादी की ऐसी अवधारणा पेश करने में मदद की जो राष्ट्रवादियों के स्वतंत्रता आंदोलन से कहीं ज़्यादा गहरी थी, और जिसमें जाति के मुद्दों को केंद्र में रखा गया था।

हालांकि डॉ. अंबेडकर मूकनायक के आधिकारिक संपादक नहीं थे, लेकिन ऐसा माना जाता है कि अपनी डॉक्टरेट डिग्री की पढ़ाई के लिए लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स जाने के पहले तक उन्होंने मूकनायक के 12 अंकों का संपादन किया था। दमानित जाति समुदायों के सदस्यों द्वारा चलाये जा रहे अखबार होने की वजह से होने वाले लगातार उत्पीड़न और आर्थिक तंगी की वजह से मूकनायक बहुत ज़्यादा समय तक नहीं चल पाया। इसका प्रकाशन 1922 में बंद हो गया। लेकिन डॉ. अंबेडकर का पत्रकारिता का सफर यहीं ख़त्म नहीं हुआ। उन्होंने आगे चल कर तीन और अख़बार शुरू किये: बहिष्कृत भारत (1927–29), जनता (1930–56) और प्रबुद्ध भारत (1956)। कुछ ही वर्ष चल पाने के बावज़ूद, मूकनायक दलित अधिकारिता का सूचक बना, जिसके माध्यम से भविष्य में जाति-विरोधी लेखन और राजनीती की नींव रखी गयी।

लीडिया जयकुमार एक लेखिका हैं जो जाति और विकास के अध्ययन में रुचि रखती हैं। उन्होंने हाल ही में सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली (भारत) से स्नातक की पढ़ाई पूरी की है।

सन्दर्भ:

  1. Bharat Patankar, and Gail Omvedt. “The Dalit Liberation Movement in Colonial Period.” Economic and Political Weekly, vol. 14, no. 7/8, 1979, pp. 409–424. www.jstor.org/stable/4367359
  2. Ambedkar used the phrase ‘age-old bias of the newspaper’ in a statement he issued outside the Parliament explaining his decision to resign from the Union Cabinet. Retrieved from: http://www.mea.gov.in/Images/attach/amb/Volume_14_02.pdf
  3. https://thewire.in/media/mooknayak-ambedkar-news
  4. https://www.forwardpress.in/2020/01/100-years-of-the-launch-of-mooknayak/ 4. B.R Ambedkar. “Mooknayak”, Trans. Vinay Kumar Vasnik, Samyak Prakashan, 2019

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Redefining the History of the Subcontinent through a Dalit lens. Participatory Community History Project